मदद की बाट जोह रहे है बंधानी
मदद की बाट जोह रहे है बंधानी
अब तक नहीं मिले गरीबी रेखा के कार्ड
रोज कुआं खोदकर पानी पीने की बन गई है मजबूरी
महीने में 10 दिन ही मिल पाता है काम
मुरैना, 31 अगस्त। बंधानी यह षब्द आपने जीवन में कभी न कभी बुजुर्गो से जरुर सुना होगा। क्योंकि अब ये षब्द कम ही सुनाई देता है। और धीरे - धीरे यह षब्द लुप्त हो जाए तो आष्चर्य नहीं होगा। बंधानी मतलब घर की छतों से पटियां उतारनें और चढ़ाने वाले। आधुनिक जमाने पर इनका काम और नाम लगभग दोनों ही गायब होने के कगार पर है।
षहर में मौजूद कामगार मजदूरों में बंधानी नाम से मजदूरों का एक समूह होता है। इस समूह में 12 से 15 लोग होते है। यह लोग के घरों पर से पत्थर की पटियां उतारने और चढ़ाने का काम करते हैं। इसके एवज में इन्हें प्रत्येक पटियां के हिसाब से 50 से 70 रुपये पड़ जाते हैं। लेकिन लोग अब इन्हें कोई पटियां चढ़ाने के लिए नहीं पटियां उतारने के लिए बुलाते है। क्योंकि इन पटियों के स्थान पर लोगों को आरसीसी की छत डलबाना पंसद करते हैं। खास बात तो यह है कि इन बंधानियों को षासन की सुविधाओं का भी लाभ नहीं मिल पा रहा हैं। बंधानियों की षिकायत है कि इनके पास गरीबी रेखा का कार्ड तक नहीं है, इसके कारण इन्हें मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना से भी वंचित होना पड़ता हैं। नगर प्रषासन द्वारा इन देहाड़ी मजदूरों को मकान और षहर में बैठने के लिए एक टीन षेड देने का वायदा भी किया गया था। लेकिन प्रषासन अपने इस वादें को भूल चुका है। अब इन देहाड़ी मजदूरों को धूप में ही अपने काम का इंतजार करना पड़ता है। इन लोगों को इस महंगाई के जमाने में दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पा रही है। इस काम को 30 बर्श से कर रहे रामदीन ने बताया कि जब से आरसीसी की छत डल रही है, तब से हमारें काम में बहुत कमी आई है। अब तो यह है कि महीने में हमें 8 - 10 दिन ही काम मिल पाता है। बाकी दिनों में हमें काम का इंतजार ही करना पड़ता है। गरीबी रेखा कार्ड के लिए हमने फार्म भरा था लेकिन रसूखदार लोगों के कार्ड तो बन गए और हमें अभी तक गेहू और चावल लेने के लिए बाजार जाना पड़ता हैं। बंधानी मजदूर दीनू ने बताया कि मुझे इस काम को करते हुए 15 साल हो गए है। लेकिन अब मै इस काम को छोड़ना चाहता हू इससे अच्छा है कि मै रिक्षा चलाकर अपने परिवार का पेट भरु। क्योंकि महीने में मुष्किल से 10 दिन ही काम मिल पाता हैं। इस बारे में मकान बनाने बाले अषोक ठेकेदार का कहना है कि हम लोगों को धूप, बारिस से बचाने के लिए मकान बनाते है। लेकिन हमारा परिवार इन्ही धूप और बारिस में रहता आया है। जिस तरह आज आरसीसी के छतों के डलने से बंधानी मजदूर संकट में है। उसी तरह आने वाले समय में अगर षासन हमारी तरफ ध्यान नहीं देता है। तो देहाड़ी मजदूरों को आत्महत्या करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। क्योंकि हम रोज कुआं खोदते है और रोज प्यास बुझाते हैं।
लोगों के घरों से भारी भरकम पटियां उतारने वाले बंधानी सबसे पहले सड़क पर बास से बनी चेरियों और लकड़ी के बल्लियों से एक मजबूत पहरा बनाते हैं। पर यह काम बहुत ही जोखिम भरा होता है। 10 फूट से ज्यादा लंबी और 5 इंज चौड़ाई की पत्थर की पटियां को उतारना बहुत ही खतरनाक होता है। पर ये बंधानी अपने 10 - 12 के समूह में इस कठिन वाले काम को आसानी से कर लेते है। इस समूह में मौजूद मजदूर पटियां को अपने कंधो पर रखकर चेरियों और बल्लियों से बने पहरे पर से धीरे - धीरे नीचे उतरतें व चढ़ते है। पहले षहर में करीब 15 से 20 बंधानियों का समूह होता था। पर अब इनकी संख्या मात्र 2 या 3 ही बची है।
अब तक नहीं मिले गरीबी रेखा के कार्ड
रोज कुआं खोदकर पानी पीने की बन गई है मजबूरी
महीने में 10 दिन ही मिल पाता है काम
मुरैना, 31 अगस्त। बंधानी यह षब्द आपने जीवन में कभी न कभी बुजुर्गो से जरुर सुना होगा। क्योंकि अब ये षब्द कम ही सुनाई देता है। और धीरे - धीरे यह षब्द लुप्त हो जाए तो आष्चर्य नहीं होगा। बंधानी मतलब घर की छतों से पटियां उतारनें और चढ़ाने वाले। आधुनिक जमाने पर इनका काम और नाम लगभग दोनों ही गायब होने के कगार पर है।
षहर में मौजूद कामगार मजदूरों में बंधानी नाम से मजदूरों का एक समूह होता है। इस समूह में 12 से 15 लोग होते है। यह लोग के घरों पर से पत्थर की पटियां उतारने और चढ़ाने का काम करते हैं। इसके एवज में इन्हें प्रत्येक पटियां के हिसाब से 50 से 70 रुपये पड़ जाते हैं। लेकिन लोग अब इन्हें कोई पटियां चढ़ाने के लिए नहीं पटियां उतारने के लिए बुलाते है। क्योंकि इन पटियों के स्थान पर लोगों को आरसीसी की छत डलबाना पंसद करते हैं। खास बात तो यह है कि इन बंधानियों को षासन की सुविधाओं का भी लाभ नहीं मिल पा रहा हैं। बंधानियों की षिकायत है कि इनके पास गरीबी रेखा का कार्ड तक नहीं है, इसके कारण इन्हें मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना से भी वंचित होना पड़ता हैं। नगर प्रषासन द्वारा इन देहाड़ी मजदूरों को मकान और षहर में बैठने के लिए एक टीन षेड देने का वायदा भी किया गया था। लेकिन प्रषासन अपने इस वादें को भूल चुका है। अब इन देहाड़ी मजदूरों को धूप में ही अपने काम का इंतजार करना पड़ता है। इन लोगों को इस महंगाई के जमाने में दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पा रही है। इस काम को 30 बर्श से कर रहे रामदीन ने बताया कि जब से आरसीसी की छत डल रही है, तब से हमारें काम में बहुत कमी आई है। अब तो यह है कि महीने में हमें 8 - 10 दिन ही काम मिल पाता है। बाकी दिनों में हमें काम का इंतजार ही करना पड़ता है। गरीबी रेखा कार्ड के लिए हमने फार्म भरा था लेकिन रसूखदार लोगों के कार्ड तो बन गए और हमें अभी तक गेहू और चावल लेने के लिए बाजार जाना पड़ता हैं। बंधानी मजदूर दीनू ने बताया कि मुझे इस काम को करते हुए 15 साल हो गए है। लेकिन अब मै इस काम को छोड़ना चाहता हू इससे अच्छा है कि मै रिक्षा चलाकर अपने परिवार का पेट भरु। क्योंकि महीने में मुष्किल से 10 दिन ही काम मिल पाता हैं। इस बारे में मकान बनाने बाले अषोक ठेकेदार का कहना है कि हम लोगों को धूप, बारिस से बचाने के लिए मकान बनाते है। लेकिन हमारा परिवार इन्ही धूप और बारिस में रहता आया है। जिस तरह आज आरसीसी के छतों के डलने से बंधानी मजदूर संकट में है। उसी तरह आने वाले समय में अगर षासन हमारी तरफ ध्यान नहीं देता है। तो देहाड़ी मजदूरों को आत्महत्या करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। क्योंकि हम रोज कुआं खोदते है और रोज प्यास बुझाते हैं।
लोगों के घरों से भारी भरकम पटियां उतारने वाले बंधानी सबसे पहले सड़क पर बास से बनी चेरियों और लकड़ी के बल्लियों से एक मजबूत पहरा बनाते हैं। पर यह काम बहुत ही जोखिम भरा होता है। 10 फूट से ज्यादा लंबी और 5 इंज चौड़ाई की पत्थर की पटियां को उतारना बहुत ही खतरनाक होता है। पर ये बंधानी अपने 10 - 12 के समूह में इस कठिन वाले काम को आसानी से कर लेते है। इस समूह में मौजूद मजदूर पटियां को अपने कंधो पर रखकर चेरियों और बल्लियों से बने पहरे पर से धीरे - धीरे नीचे उतरतें व चढ़ते है। पहले षहर में करीब 15 से 20 बंधानियों का समूह होता था। पर अब इनकी संख्या मात्र 2 या 3 ही बची है।
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