भारतीय मदरसों के आधुनिकीकरण का औचित्य

भारतीय मदरसों के आधुनिकीकरण का औचित्य

तनवीर जांफरी (सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)

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       दुनिया में दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे आतंकवाद तथा आत्मघाती हमलों की बढ़ती संख्या में अधिकांशतय: मुस्लिम समुदाय के लोगों की संलिप्तता से यह प्रश् उठने लगा है कि आंखिर खून-खराबे से भरी इस सोच की जड़ें हैं कहां? इस प्रकार की हिंसक गतिविधियों को आमतौर पर उचित ठहराने वाला मुसलमानों का एक वर्ग ऐसा है जो इन आतंकवादी घटनाओं का कारण मुसलमानों के अधिकारों का हनन मानता है। जबकि मानवतावादी, उदारवादी तथा अहिंसक सोच रखने वाले लोगों का मत है कि हिंसक वारदातें अंजाम देकर अपने अधिकारों की प्राप्ति की बात करना न सिंर्फ ंगलत व मानवता विरोधी है बल्कि यह ंगैर इस्लामी भी है। इस वर्ग का मत है कि मदरसों में दी जाने वाली इस्लामी शिक्षा भी किसी न किसी प्रकार मदरसे में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चे को रूढ़िवादी इस्लाम की राह पर चलने की प्रेरणा देती है। इसका मानना है कि यहीं से शुरु होता है मुस्लिमों व ंगैर मुस्लिमों के बीच नंफरत व विद्वेष का वह सिलसिला जो समाज को विभाजित करने में अपनी अहम भूमिका अदा करता है।

              यहां किसी भी मदरसे की सामान्य पृष्ठभूमि का उल्लेख करना संक्षेप में ंजरूरी होगा। मदरसा इस्लामी शिक्षा का वह केंद्र है जहां साधारणतय: वे माता-पिता अथवा अभिभावक अपने बच्चों का दांखिला करवाते हैं जो उच्च या मध्यम श्रेणी के किसी स्कूल में अपने बच्चों को शिक्षा दिला पाने की आर्थिक हैसियत नहीं रखते। इस्लामिक मदरसा एक ऐसे शिक्षण संस्थान का नाम है जहां पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों के रहने, खाने-पीने तथा त्यौहार आदि पर कपड़े वग़ैरह का प्रबन्ध भी धमार्थ हो जाता है। बच्चे की पढ़ाई पर धन न ंखर्च करने के अतिरिक्त अभिभावक की दिलचस्पी इस बात में भी होती है कि उनका होनहार बच्चा इस्लामी शिक्षा ग्रहण कर हांफिंज, मौलवी, ंकारी, आलिम अथवा धर्मगुरु बनकर मुस्लिम समाज में मान सम्मान व प्रतिष्ठा का पात्र बनेगा। और उसकी यही शिक्षा सारा जीवन मान प्रतिष्ठा के साथ-साथ उसकी रोंजी रोटी का भी साधन बन सकेगी। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करते-करते तथा इसके सम्पूर्ण होने तक मदरसे के किसी छात्र के ंजेहन में एक बात और भी अपना स्थान बना चुकी होती है और वह यह कि वह जो कुछ भी कर रहा है ंखुदा की राह में कर रहा है, ंखुदा के लिए कर रहा है तथा इस रास्ते पर चलकर वह जन्नत (स्वर्ग) का हंकदार भी बन रहा है। इस्लामी शिक्षा सम्पूर्ण होते-होते यही बच्चा दुनिया से विमुख होने तथा दीन, धर्म के प्रति समपिर्त होने की बात करने लगता है। अपने चरम पर पहुंचने के बाद यही शिक्षा उस मासूम बच्चे को मुस्लिमों व ंगैर मुस्लिमों के बीच ंफासला रखना भी सिखा देती हैं तथा वह अपने इस विश्वास के प्रति भी दृढ़ हो चुका होता है कि केवल इस्लाम ही दुनिया का एकमात्र सच्चा धर्म है और सच्चे मुसलमान ही ंखुदा की राह पर चलने वाली एकमात्र जमाअत। ऐसी सोच या ऐसी शिक्षा ंगैर मुस्लिमों को कहीं कांफिर कहकर सम्बोधित करती है, कहीं मुशरिक तो कहीं मुनांफिक आदि।

              इस्लामी शिक्षा के प्रचार-प्रसार का इस्लामिक मदरसा रूपी यह तरींका तथा ऐसी शिक्षा इस्लाम धर्म के शुरुआती दौर में भले ही न्यायसंगत क्यों न रही हो। परन्तु वर्तमान दौर में जिसे कि वैश्वीकरण के युग के नाम से जाना जा रहा है न सिंर्फ मदरसा शिक्षा बल्कि सभी धर्मों व सम्प्रदायों द्वारा अपने बच्चों को दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा जिसे हम सीमित शिक्षा भी कह सकते हैं, पर प्रश् चिन्ह लगने लगा है। आज भारत जैसे विशाल देश में मुसलमानों की जनसंख्या 15.4 प्रतिशत है। भारत में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई ए एस) के इस समय कुल 4790 अधिकारी हैं जिनमें मुस्लिम अधिकारियों की संख्या मात्र 108 है। अर्थात् कुल प्रशासनिक अधिकारियों की संख्या का मात्र 2.2 प्रतिशत। यही हालत भारतीय पुलिस सेवा (आई पी एस) में भी देखी जा सकती है। यहां भारत के कुल 3209 आई पी एस अधिकारियों में मात्र 109  अधिकारी मुसलमान हैं। उपरोक्त मुस्लिम अधिकारी तथा इन जैसे और हंजारों वैज्ञानिकों, डॉक्टर्स, इंजीनियर्स व प्रोंफेसर ऐसे हैं जिन्हें देश के बुद्धिजीवी व शिक्षित समाज में गिना जाता है। नि:सन्देह यही वर्ग न सिंर्फ मुसलमानों का नाम रौशन करता है बल्कि अपनी सेवा के माध्यम से देश व मानवता की भलाई जैसा महत्वपूर्णर् कत्तव्य भी अदा करता है। भारत रत्न डा. ऐ पी जे अब्दुल कलाम का नाम समस्त तथाकथित इस्लामी ठेकेदारों द्वारा दी जाने वाली सीख, सोच व शिक्षा पर भारी है। परन्तु ठीक इसके विपरीत देश के मदरसों से शिक्षा ग्रहण कर इस्लामी धर्मगुरु के रूप में निकलने वाले मुल्लाओं की संख्या हंजारों में नहीं बल्कि लाखों में हो सकती है। निश्चित रूप से यह एक महत्वपूर्ण प्रश् है कि लाखों की तादाद में देश भर में दिखाई देने वाले मुल्लाओं ने समाज में धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए आंखिर अब तक किया ही क्या है? समाज को साम्प्रदायिक एकता की कड़ी में जोड़ने में इन धर्मगुरुओं ने अपनी क्या भूमिका निभाई है? यहां तक कि यह कठमुल्ला समाज में इस्लाम धर्म के सही स्वरूप को अब तक पेश नहीं कर सके हैं। यह लोग सामूहिक रूप से आतंकवाद को इस्लाम विरोधी बताने तक में सफल नहीं हो सके हैं।

              आज भारत व पाकिस्तान जैसे देशों में सरकारों द्वारा इस विषय पर बहुत गंभीरता से विचार किया जा रहा है कि आंखिर इस्लामिक मदरसों को आधुनिक शिक्षा के दायरे में किस प्रकार लाया जाए ताकि इनकी ओर कट्टरवाद के आरोपों की उठने वाली उंगलियों को रोका जा सके। पाकिस्तान में इस समय लगभग 17000 मरदसे हैं। इन मदरसों के संचालन हेतु सोसाईटींज रेजिस्ट्रेशन ऑर्डिनेंस 2005 (द्वितिय संशोधन) के अन्तर्गत निगरानी रखने की जो प्रमुख व्यवस्था की गई है उनमें एक तो यह है कि कोई भी व्यक्ति या संगठन पंजीकरण कराए बिना कोई भी मदरसा संचालित नहीं कर सकता। इसी प्रकार एक अन्य नियम के तहत प्रत्येक पंजीकृत मदरसे को अपने छात्रों को दी जाने वाली शिक्षा तथा मदरसे में अंजाम दी जाने वाली प्रत्येक गतिविधि की विस्तृत जानकारी पर आधारित पूरी रिपोर्ट रजिस्ट्रार को प्रत्येक वर्ष जमा करानी होगी। प्रत्येक पंजीकृत मदरसे को अपना ऑडिटर रखना होगा जोकि मदरसा रजिस्ट्रार को ंजरूरत पड़ने पर किसी भी समय पूरा हिसाब-किताब दे सके। इसके अतिरिक्त इन्हीं मदरसों को यह सख्त हितदायत भी दी गई है कि यहां ऐसा साहित्य न तो पढ़ाया जाए और न ही प्रकाशित किया जाए जिनसे कि आतंकवाद को बढ़ावा मिले या इस्लामिक वर्गवाद को प्रोत्साहन मिले।

              इसी प्रकार भारत में भी केंद्र सरकार द्वारा मदरसों के आधुनिकीकरण हेतु एक ंकानून बनाने का प्रस्ताव है। इसका मंकसद मदरसों के पाठयक्रम व यहां की शिक्षा की व्यवस्था व स्तर को बेहतर बनाना है। भारत सरकार भारतीय मदरसों को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी बी एस ई) की तरह केंद्रीय मदरसा बोर्ड का गठन कर उसके अधीन लाने हेतु एक ंकानून पारित करवाना चाहती है। मुसलमानों के शैक्षिक स्तर में सुधार लाने के उद्देश्य से सरकार ने पूरे देश में उर्दू माध्यम के 125 आवासीय स्कूलों की योजना शुरु करने की घोषणा 2006 में की थी। 2007 से शुरु होने वाली इस योजना पर 2 हंजार करोड़ रुपए से अधिक की लागत आने की संभावना है। इन सभी स्कूलों में सी बी एस ई का पाठयक्रम लागू होना प्रस्तावित है। भारत में शिक्षा का राष्ट्रीय दर 65 प्रतिशत है जबकि मुसलमानों की शिक्षा का दर मात्र 29 प्रतिशत है। सरकार द्वारा यह सारी ंकवायद इसी उद्देश्य को लेकर की जा रही है ताकि मुसलमानों की शिक्षा का दर भी राष्ट्रीय शिक्षा की दर के बराबर पहुंच सके। इसी कारण मदरसों की पढ़ाई को भी आधुनिक, उपयोगी तथा रोंजगारोन्मुख बनाने हेतु यह सभी प्रयास किए जा रहे हैं।

              भारतीय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सहित तमाम भारतीय नेता, राजनैतिक दल व प्रगतिशील विचारधारा रखने वाले मुसलमान भी मदरसों के आधुनिकीकरण हेतु लाए जाने वाले इस सरकारी प्रस्ताव के पक्षधर हैं तो दूसरी ओर रूढ़िवादी सोच रखने वाले मुस्लिम नेता इन प्रयासों को धार्मिक अध्ययन के कामकाज में सरकारी दंखलअन्दांजी की कोशिश की संज्ञा दे रहे हैं। ऐसे में आम मुसलमानों को स्वयं यह निर्णय लेना होगा कि वे इस्लामिक मदरसों को शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल किए जाने तथा मदरसों में रोंजगारोन्मुख शिक्षा दिए जाने के पक्षधर हैं या फिर वे मदरसों की वर्तमान उस रूढ़िवादी शिक्षा प्रणाली से ही संतुष्ट हैं जिससे कि समय-समय पर मदरसों पर चरमपंथी सोच को बढ़ावा देने का विश्वव्यापी आरोप लगता रहता है तथा इसी चरमपंथी सोच का रिश्ता आतंकवाद जैसे मानवता विरोधी मिशन से भी जा मिलता है।

 

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